Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-4


प्रवेश--४



ग्यारह बरस बाद! वैशाली के उत्तर-पश्चिम पचीस-तीस कोस पर अवस्थित एक छोटे-से ग्राम में एक वृद्ध अपने घर के द्वार पर प्रातःकाल के समय दातुन कर रहा था। पैरों की आहट सुनकर उसने पीछे की ओर देखा। चम्पक-पुष्प की कली के समान ग्यारह वर्ष की एक अति सुन्दरी बालिका, जिसके घुंघराले बाल हवा में लहरा रहे थे, दौड़ती हुई बाहर आई, और वृद्ध को देखकर उससे लिपटने के लिए लपकी, किन्तु पैर फिसलने से गिर गई। गिरकर रोने लगी। वृद्ध ने दातुन फेंक, दौड़कर बालिका को उठाया, उसकी धूल झाड़ी और उसे हृदय से लगा लिया। बालिका ने रोते-रोते कहा—'बाबा, देखा है तुमने रोहण का वह कंचुक? वह कहता है, तेरे पास नहीं है ऐसा। वैशाली की सभी लड़कियां वैसा ही कंचुक पहनती हैं, मैं भी वैसा ही कंचुक लूंगी बाबा!'

वृद्ध की आंखों में पानी और होंठों पर हास्य आया। उसने कहा—"अच्छा, अच्छा मैं तुझे वैशाली से वैसा ही कंचुक मंगा दूंगा बेटी!"

"पर बाबा, तुम्हारे पास दम्म कहां हैं? वैसा बढ़िया चमकीला कंचुक छः दम्म में आता है, जानते हो?"

"हां, हां, जानता हूं।"

वृद्ध की भृकुटि कुंचित हुई और ललाट पर चिन्ता की रेखा पड़ गई। वृद्ध की पत्नी को मरे आठ साल बीत चुके थे। उसके बाद कन्या की परिचर्या में बाधा पड़ती देख सावन्त महानामन् राजसेवा त्यागकर अपने ग्राम में आ कन्या की सेवा-शुश्रूषा में अबाध रूप से लगे रहते थे। अम्बपाली को उन्होंने इस भांति पाला था जैसे पक्षी चुग्गा देकर अपने शिशु को पालता है। अब उनकी छोटी-सी कमाई की क्षुद्र पूंजी यत्न से खर्च करने पर भी समाप्त हो गई थी। यहां तक कि पत्नी की स्मृतिरूप जो दो-चार आभरण थे, वे भी एक-एक करके उसकी उदर-गुहा में पहुंच चुके थे! अब आज जैसे उसने देखा—उसके प्राणों की पुतली यह बालिका जीवन में आगे बढ़ रही है, उसकी अभिलाषाएं जाग्रत् हो रही हैं और भी जाग्रत् होंगी। यही सोचकर वृद्ध महानामन् चिन्तित हो उठे। किन्तु उन्होंने हंसकर तड़ातड़ तीन चार चुम्बन बालिका के लिए और गोद से उतारकर कहा—"वैसा ही बढ़िया कंचुक ला दूंगा बेटी!"

बालिका खुश होकर तितली की भांति घर में भाग गई और वृद्ध की आंखों से दो-तीन बूंद गर्म आंसू टपक पड़े। वे चिन्तित भाव से बैठकर सोचने लगे—एक बार फिर वैशाली चलकर पुरानी नौकरी की याचना की जाए। वृद्ध का बाहुबल थक चुका था किन्तु क्या किया जाए। कन्या का विचार सर्वोपरि था, परन्तु वृद्ध के चिन्तित होने का केवल यही कारण न था। लाख वृद्ध होने पर भी उसकी भुजा में बल था—बहुत था। पर उसकी चिन्ता थी—बालिका का अप्रतिम सौन्दर्य। सहस्राधिक बालिकाएं भी क्या उस पारिजात कुसुमतुल्य कुन्द-कलिका के समान हो सकती थीं? किस पुष्प में इतनी गन्ध, कोमलता और सौन्दर्य था? उन्हें भय था कि वज्जियों के उस विचित्र कानून के अनुसार उनकी कन्या विवाह से वंचित करके कहीं 'नगरवधू' न बना दी जाय। वज्जी गणतन्त्र में यह विचित्र कानून था कि उस गणराज्य में जो कन्या सर्वाधिक सुन्दरी होती थी, वह किसी एक पुरुष की पत्नी न होकर 'नगरवधू' घोषित की जाती थी और उस पर सम्पूर्ण नागरिकों का समान अधिकार रहता था। उसे 'जनपद-कल्याणी' की उपाधि प्राप्त होती थी। कन्या के अप्रतिम सौन्दर्य को देखकर वृद्ध महानामन् वास्तव में इसी भय से राजधानी छोड़कर भागे थे, जिससे किसी की दृष्टि बालिका पर न पड़े। पर अब उपाय न था। महानामन् ने एक बार फिर वैशाली जाने का निर्णय किया।

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